
भारत में भिखारियों की अलग से गिनती नहीं होती, बल्कि जनगणना में उन्हें beggars and vagrants श्रेणी में दर्ज किया जाता है। 2011 की जनगणना (Survey on Beggars, Census 2011) के अनुसार देश में 4.13 लाख से अधिक भिखारी हैं। इनमें सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल (81,244) और सबसे कम मिजोरम, नागालैंड व सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में दर्ज हुए। बता दें कि अब आगामी जनगणना में नए डेटा सामने आएंगे।
रेलवे स्टेशन, मंदिरों के बाहर या ट्रैफिक सिग्नल पर हाथ फैलाए लोगों को देखकर अक्सर यह सवाल उठता है कि आखिर देश में भिखारियों की संख्या का पता कैसे लगाया जाता है। क्या इसके लिए कोई अलग सर्वे होता है? किस राज्य में सबसे ज्यादा भिखारी रहते हैं और सरकार इनके लिए क्या करती है? आइए विस्तार से जानते हैं। Survey on Beggars, Census 2011 के डेटा के आधार पर यहां आकड़े बताये गए है.
2011 की जनगणना में भिखारियों की संख्या
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में कुल 4,13,670 लोगों को भिखारी और वंचित वर्ग में दर्ज किया गया था। इनमें 2,21,673 पुरुष और 1,91,997 महिलाएं शामिल थीं। भले ही यह आंकड़े पुराने हैं, लेकिन आज भी यही आधिकारिक संदर्भ माने जाते हैं।
किस राज्य में सबसे ज्यादा भिखारी?
राज्यवार आंकड़ों के अनुसार-
राजस्थान: 25,853
पश्चिम बंगाल: 81,244 (देश में सबसे ज्यादा)
उत्तर प्रदेश: 65,835
आंध्र प्रदेश: 30,218
बिहार: 29,723
मध्य प्रदेश: 28,695
वहीं नागालैंड, मिजोरम और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में भिखारियों की संख्या बहुत कम है।
कैसे होती है भिखारियों की जनगणना?
भारत में भिखारियों की कोई अलग गिनती नहीं की जाती। उन्हें जनगणना में “beggars and vagrants” की श्रेणी में दर्ज किया जाता है। यानी ऐसे लोग जो कोई उत्पादक कार्य नहीं करते और जीविका के लिए भीख पर निर्भर रहते हैं। यही आंकड़े सरकार संसद में पेश करती है और इन्हीं के आधार पर नीतियां बनती हैं।
सरकार की पहल:
भीख मांगने वालों के पुनर्वास के लिए सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने “स्माइल योजना” शुरू की है। इसके तहत –
- आश्रय, चिकित्सा और शिक्षा की सुविधा
- कौशल विकास व रोजगार से जोड़ना
- दिल्ली, लखनऊ, पटना, नागपुर, इंदौर, हैदराबाद और बेंगलुरु में पायलट प्रोजेक्ट्स चलाए गए हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट ने 2018 में कहा था कि भीख मांगना अपराध नहीं बल्कि मजबूरी है। लोग ऐसा शौक से नहीं करते, बल्कि इसलिए क्योंकि उनके पास दूसरा साधन नहीं होता। कोर्ट ने इसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताया और पुनर्वास पर जोर देने की बात कही।